झारखण्‍ड     देवघर     सार्थ


इकाइयों के ऐसे भौगोलिक जमाव (नगर/शहर/कुछ सटे गांव और उनसे लगते हुए क्षेत्र) को क्लस्टर (जमघट) कहते हैं, जो लगभग एक ही तरह के उत्पाद तैयार करते हैं तथा जिन्हें समान अवसरों और खतरों का सामना करना पड़ता है| हस्तशिल्प/हथकरघा उत्पादों को तैयार करने वाली पारिवारिक इकाइयों के भौगोलिक जमाव (जो अधिकांशतः गांवों/कस्बों में पाया जाता है) को आर्टिशन क्लस्टर कहते हैं| किसी क्लस्टर विशेष में, ऐसे उत्पादक प्रायः किसी खास समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, जो पीढियों से इन उत्पादों को तैयार करने के कार्य में लगे होते हैं| दरअसल, कई आर्टिशन क्लस्टर (शिल्पी जमघट) सदियों पुराने हैं| .

सार्थ समूह के बारे में:-

सार्थ समूह झारखण्‍ड  राज्‍य में देवघर जिला के अर्न्‍तगत आता है.

सार्थ समूह समूह 266 से अधिक कलाकारों तथा 20 एसएचजी आकार सहित सशक्‍त कार्यबल आधार प्रदान करने में सक्षम है. यह संघटन दिन प्रति दिन पहचान प्राप्‍त कर रहा है.

मृण्मूर्ति:-

कुम्‍हारों के रूप में विख्‍यात कुंभकार समुदाय सामान्‍यत झारखण्‍ड की वृहत्त आबादी में पाया जाता है. गृह उपयोग एवं सजावटी वस्‍तुओं के अनेक प्रकार हैं. एक बड़े आकार का पात्र अति प्रसिद्ध है जो महुआ मदिरास्‍थानीय शराब) के साथ-साथ चावल से बनाई जाने वाली स्‍थानीय बीयर निर्माण में प्रयुक्‍त होता है. देवगढ़ में आकर्षक काली मिट्टी के चमकीले बर्तन होते हैं. छत्त टाईलें, समारोहों के लिए जल-पात्र, मिट्टी के प्‍याले, लंबी गर्दनयुक्‍त कलश तथा बर्तन अन्‍य उपयोगी वस्‍तुएं हैं. उत्‍सवों के सीजन के दौरान शिल्‍पकार चमकीली रंगीन टैराकोटा पशु आकृतियां तथा मिट्टी के मंदिर निर्मित करते हैं. नूनीहाट में बड़ी संख्‍या में महिलाएं टेराकोटा आभूषण निर्मित करती हैं. मिट्टी एवं टैराकोटा की परंपरा बिहार में प्राचीन कालीन मौर्य युग से ही है. इस शिल्‍प की कुछ परम्‍पराओं का अब भी पालन किया जाता है और प्रत्‍येक गॉंव, जनपद एवं क्षेत्र में मिट्टी के बर्तनों का अपना विशिष्‍ट रूप है. खि‍लौनों तथा आकृतियों के निर्माण का सामयिक त्‍यौहारों  तथा धार्मिक उत्‍सवों  से निकट संबंध है. मिट्टी के हाथी अति प्रसिद्ध हैं और छत्तों के ऊपर रखे जाते हैं क्‍योकि यह विवाह को निरूपित करता है. कुछ मिट.टी के बर्तन विशेषकर बच्‍चों के लिए बनाए जाते हैं और शिल्‍पकार उन्‍हें बगैर तीक्ष्‍ण गोलाई या तरंग प्रदान किए निर्मित करते हैं. हाथी, मगरमच्‍छ, घोड़े प्रशंसित वस्‍तुओं में हैं.



भारत में कुम्हारी और मिट्टी और बर्तन बनाने की समृद्ध परंपरा रही है जिसकी जडें प्रागैतिहासिक काल में हैं. मिट्टी के बर्तनों में एक विस्तृत सार्वभौमिकता है और यह परंपरा पांच सदी पहले से चली आ रही है. मिट्टी के वस्तुओं की कलाकारी को इसकी कभी न खत्म होने वाले आकर्षण के कारण हस्तशिल्प का गीत कहा जाता है. बहुत तरह के मिटटी की चीज़ें जैसे लैंप, पटिया, फूल के गमले, बर्तन, संगीत के उपकरण, मोमबतीदान बनायीं जाती हैं.

 

कच्ची सामग्री :-

बुनियादी सामग्री:मिट्टी/कीचड,राइ का तैल,कुम्हार का पैया,चिपकाने वाला पदार्थ,स्टार्च,वेक्स,कादव,कुम्हार का पैया,पैड की छोटी डालिया,सूखी डालिया,पते, जलाउ लकडी, चावल की लकडी,लाल मिट्टी,काली मिट्टी,पीली मिट्टी, पलो मिट्टी,अलग अलग प्रकार की मिट्टीया (कादव / कीचड) ,खाने लायक गुंदर,स्टार्च,मिट्टी । सजाने की सामग्री: राख,रेत,गाय का गोबर,चावल के भूंसी, मिट्टी, रेत,फुननफाडी (भीना कपडा),फुजेइ(लकडे का धोका), कांगखील , बंध किया हुआ पात्र का स्लेब,लेपसम (बेलनाकार प्लेटफार्म) , प्लास्टीक क्ले मिट्टी,राइ का तैल,कुम्हार का पैया,खाने लायक गुंदर, स्टार्च, फेल्डस्पार, मिट्टी, वेक्स।

प्रक्रिया:-

आकार जो अलग अलग उपयोगो के लिए जरुरी है उनको पहिये पे बनाये जाते है।चोक्कस हिस्सा जैसे की टोटा या हेन्डल को छॊड दिया जाता है।उनको अलग से ढाला जाता है और बाद में शरीर से जोडा जाता है।उसके बाद, ज्यामितीय पेटर्न बनाने के लिए सतह पे कर्तन पेटर्न के द्रारा सजावट कि जाती है ।

मिट्टी जो राख और रेत के साथ मिश्रित कि गइ है उनको पांव से गूंधा जाता है,लाहासूर से इकठ्ठा और काटा जाता है।उसके बाद हाथो से गूंधा जाता है,पीडा पे और पिंडक बनाया जाता है।सभी ठोस चीजे निकाल दि जाती है।तैयार मिट्टी को पहिये पे अलग अलग आकार बनाने के लिए रखी जाती है।कुम्हार के पहिये मे छोटे दंड होते है लकडा या धातु के आधार वाले हिस्से पे घुमता है और बहुत सारी जगह दी गइ होती है जो घुमते हुए टेबल के जैसा काम करता है।गोलाकार भाग के छिद्र में सीधी लकडी को दाखिल की जाती है।कुम्हार पहिये के मध्यमें गूंधी हुइ मिट्टी को फेंकता है,और लकडी से पहिये को गोल गोल घुमाता है।केन्द्र में लगनेवाले बल के कारण मिट्टी का पिंड बाहर की तरफ और उपर की तरफ खींचता है और पात्र के आकारमें बनता है।इसको धागे से खींच लीय़ा जाता है,सूखा के कुम्हार की भठ्ठी में गर्म किया जाता है।मिट्टी की चीजे गर्म करने के बाद मृण्मूर्ति बन जाती है।

जो को सरल खुले खड्डे वाली भठ्ठी में गर्म किया जाता है जो कुंजो को 700-800 से. तक गर्म करने के लिए बहुत हि असरकारक और बिना खर्चेवाली होती है । कुंजो को कुंजो के स्तरमे रखा जाता है,कंइ बार पतो , पेड की डालीयो,और गाय के कंडा के स्तर को दाखिल किया जाता है।उपरी स्तर बाद में चावल की लकडियो के आवरण से ढक दिया जाता है उसके बाद उसके उपर दुम्मटी मिट्टी का पतला स्तर किया जाता है। गर्म होने मे चार से पांच घंटे लगते है।

काली ,लाल और पीली मिट्टी का मृण्मूर्ति चीजे बनाने के लिए इस्तेमाल होता हे,जिनको छोटे टुकडो के रुप में राजस्थान और दिल्ली से इकठ्ठा किया जाता है।यह सामग्री को ठीक तरीके से मिश्रित किया जाता है और गर्म सूरज मे रख के सूखाया जाता है जिसके कारण कोइ भी मात्रा में अगर नमी हो तो उसका वाष्पीकरण हो जाये।उसके बाद भीनी मिट्टी को कंकरो को दूर करने के लिए अच्छी छलनी से छाना जाता है।हाथो से आकार देने के बाद चीजो को कामचलाउ भठ्ठी में गरम किया जाता है गाय के कंडा, इंधन, और आरी की धूल इत्यादि से ढका जाता है।

मिट्टी जो राख और रेत के साथ मिश्रित कि गइ है उनको पांव से गूंधा जाता है।उसके बाद हाथो से गूंधा जाता है,पीडा पे और पिंडक बनाया जाता है।सभी ठोस चीजे जैसेकी ग्रेवल,छोटे कंकर,पेड की डालीया इत्यादि को दूर कर दिया जाता है।तैयार मिट्टी को पहिये पे रखा जाता है अलग अलग आकार बनाने के लिए।कुम्हार के पहिये पे नरम स्पोकस होते है,लकडे और धातु के आधार पर घुमता है और बहुत सारी जगह दी जाती है जो घुमते हुए टेबल के जैसा काम करता है।गोलाकार भाग के छिद्र में सीधी लकडी को दाखिल की जाती है।कुम्हार पहिये के मध्यमें गूंधी हुइ मिट्टी को फेंकता है,और लकडी से पहिये को गोल गोल घुमाता है।केन्द्र में लगनेवाले बल के कारण मिट्टी का पिंड बाहर की तरफ और उपर की तरफ खींचता है और पात्र के आकारमें बनता है।इसको धागे से खींच लीय़ा जाता है,सूखा के कुम्हार की भठ्ठी में गर्म किया जाता है।मिट्टी की चीजे गर्म करने के बाद मृण्मूर्ति बन जाती है।

तकनीकियाँ:-

स्त्री कुम्हार अनोखी हाथ नमूने की तकनिक का प्रयोग करती है,संभवत: पहिये की खोज से पहले निओलीथीक समय के पूर्व पीछे जाते है तो। जो चीजे बनती है वो है सरल कुंजे की सतह,पानी छलनी, गुलदानीया ,अगरबतीयां, लेम्प और हुक्का।

कैसे पहुचे :-

देवगढ़ से निकटतम विमानपत्तन पटना 281 कि.मी है. रेल द्वारा जसडीह तक पहुँचा जा सकता है और वहां से एक अन्‍य रेल द्वारा देवगढ़ के लिए ली जा सकती है, या जसडीह से निजि टैक्‍सी ली जा सकती है या बस द्वारा भी जा सकते हैं. देवगढ़ सड़क मार्ग द्वारा राज्‍य के अन्‍य भागों से भी जुड़ा हुआ है.   








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